हिंदी साहित्य का इतिहास – भूमिका – रामचंद्र शुक्ल

प्रथम संस्करण का वक्तव्य

  • हिंदी के कवियों का एक वृत-संग्रह शिवसिंह सेंगर ने सन् 1883 ई. में प्रस्तुत किया था। उसके पीछे सन् 1889 में डॉ. (अब सर) ग्रियर्सन ‘वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नार्दन हिंदुस्तान’ के नाम से एक वैसा ही बड़ा कवि – वृत संग्रह निकाला।
  • काशी की नागरिप्रचारिणी सभा का ध्यान आरंभ ही में इस बात की ओर गया कि सहस्त्रों हस्तलिखित हिंदी पुस्तकें देश के अनेक भागों में, राजपुस्तकालयों तथा लोगों के घरों में अज्ञात पड़ी हैं। अत: सरकार की आर्थिक सहायता से उसने सन् 1900 से पुस्तकों की खोज का काम हाथ में लिया और सन् 1911 तक की खोज की अपनी आठ रिपोर्टों में सैकड़ों अज्ञात कवियों तथा ज्ञात कवियों के अज्ञात ग्रंथों का पता लगाया।
  • सन् 1913 में इस सारी सामग्री का उपयोग करके मिश्र बंधुओं (श्रीयुत् पं. श्यामबिहारी मिश्र, शुकबिहारी मिश्र, गणेशबिहारी मिश्र) ने अपना बड़ा भारी कवि-वृत-संग्रह ‘मिश्रबंधु विनोद’, जिसमें वर्तमान काल के कवियों और लेखकों का भी समावेश किया गया है, तीन भागों में प्रकाशित किया।
  • शुक्ल जी ने आदिकाल का नाम वीरगाथाकाल रखा हैं।
  • साहित्यिक पुस्तकें
    • 1. विजयपाल रासो
    • 2. हमीर रासो
    • 3. कीर्तिलता
    • 4. कीर्तिपताका
  • देशभाषा काव्य
    • 5. खुमान रासो
    • 6. बीसलदेव रासो
    • 7. पृथ्वीराज रासो
    • 8. जयचंद्रप्रकाश
    • 9. जयमयंकजस चंद्रिका
    • 10. परमाल रासो
    • 11. खुसरो की पहेलियां
    • 12. विद्यापति पदावली।
  • इन्ही बारह पुस्तकों की दृष्टि से आदिकाल का लक्षण निरूपण और नामकरण हो सकता है। इसमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर शेष सभी वीरगाथात्मक है।
  • आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है।
  • कहने कि आवश्यकता नहीं है कि हिंदी साहित्य का यह साहित्य हिंदी शब्दसागर की भूमिका के रूप में ‘हिंदी साहित्य के विकास’ के नाम से सन् 1929 के जनवरी महीने में निकल चुका है।
  • बाबू श्यामसूंदरदास बी.ए. की ‘हिंदी कोविंद रत्नमाला’, श्रीयुत् पं. रामनरेश त्रिपाठी की ‘कविता कौमुदी’ तथा श्री वियोगी हरिजी के ‘ब्रजमाधुरी सार’ से भी बहुत कुछ सामग्री मिली है।शुक्ल जी के मित्र – केदारनाथ पाठक (सामग्री के संकलन में शुक्ल जी की काफी मदद की थी)
  • सिद्धों और योगियों की रचनायें साहित्य कोटि में नहीं आती।

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