उपन्यास का सामान्य परिचय
- परीक्षागुरु (1882 ई०) लाला श्रीनिवास द्वारा रचित रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार हिन्दी की प्रथम औपन्यासिक कृति है।
- डॉ. गोपाल राय ने इसे ‘उपदेशाख्यान’ कहा है जबकि उपन्यासकार के शब्दों में परीक्षागुरु ‘एक नई चाल’ की पुस्तक है।
- परीक्षा-गुरु’ उपन्यास में हिन्दी के एक कल्पित रईस का चित्र उतारा गया है।
- इस औपन्यासिक कृति में नायक मदनमोहन के जीवन के उतार-चढ़ाव, उसका चारित्रिक पतन, अपराध बोध एवं ब्रजकिशोर नामक पात्र के द्वारा उसके हृदय परिवर्तन एवं उदात्तीकरण की कहानी वर्णित है।
- ‘परीक्षा-गुरु’ उपन्यास का नायक 30 वर्षीय मदनमोहन तत्कालीन नवशिक्षित मध्यवर्ग के युवकों की चारित्रिक दुर्बलताओं का प्रतीक चरित्र है।
- उसका दीवानखाना चुन्नीलाल, मास्टर शिंभूदयाल, पंडित पुरुषोत्तम, हकीम अहमद हुसैन, बाबू बैजनाथ जैसे चंडलों से भरा पड़ा है जो मदमोहन को तरह-तरह के सब्जबाग दिखाकर उसे पतन के मार्ग पर ले जाते हैं।
- इन धूर्त, स्वार्थी, अवसरवादी, ढोंगी, तोताश्म, झूठे-फरेब मित्रों के झांसे और बहकावे में आकर मदनमोहन अपनी सारी संपत्ति गवाँ बैठता है और विपत्ति में आकंठ डूब जाता है।
- अविवेकी, कुमागी मदनमोहन के समक्ष अंततः ढोंगी, स्वार्थी, धूर्त, चालाक, भेड़ की खाल ओढ़े मित्र रूपी भेड़ियाओं के सच उजागर हो उठते हैं।
- एक सच्चे मित्र ब्रजकिशोर के पुरुषार्थ, बुद्धि-कौशल, चातुर्य और व्यवहार कुशलता से वह विपदा मुक्त होता है। गोपाल राय ने लिखा है कि यह कहानी प्रतीक रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत के आर्थिक शोषण और लूट का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है।
‘परीक्षा-गुरु’ की भूमिका में उपन्यासकार के प्रसिद्ध कथन
- अबतक नागरी और उर्दू भाषा में अनेक तरह की अच्छी-अच्छी पुस्तकें तैयार हो चुकी हैं, परन्तु मेरे जान इस रीति से कोई नहीं लिखी गई, इसलिए अपनी भाषा में यह नई चाल की पुस्तक होगी। यह सच है कि नई चाल की चीज देखने को सबका जी ललचाता है परन्तु पुरानी रीति मन लगाकर समझने में थोड़ी मेहनत होने से पहले पहल पढ़नेवाले का जी कुछ उलझने लगता है और मन उचट जाता है।
- इससे उसका हाल समझ में आने के लिए में अपनी तरफ से कुछ खुलासा करना चाहता हूँ-पहले तो पढ़नेवाले इस पुस्तक में सौदागर की दुकान का हाल पढ़ते ही चकरायेंगे क्योंकि अपनी भाषा में अब तक वार्तारूपी जो पुस्तकें लिखी गई हैं, उनमें अक्सर नायक, नायिका वगैरह का हाल ठेटसै सिलसिलेवार (यथाक्रम) लिखा गया है “जैसे कोई राजा, बादशाह, सेठ, साहूकार का लड़का था। उसके मन में इस बात से यह रुचि हुई और उसका यह परिणाम निकला” ऐसा सिलसिला कुछ भी नहीं मालूम होता। लाला मदनमोहन एक अंग्रेजी सौदागर की दुकान में अस्बाब देख रहे हैं। लाला ब्रजकिशोर मुंशी चुन्नीलाल और मास्टर शिंभूदयाल उनके साथ हैं।”
- अलबत्ता किसी नाटक में यह रीति पहले से पाई जाती है परन्तु इसकी लिखने की रीति जुदी, जुदी है।
- इस पुस्तक में दिल्ली के एक कल्पित (फर्जी) रईस का चित्र उतारा गया है और उसको जैसे का तैसा (अर्थात् स्वाभाविक) दिखाने के लिए संस्कृत अथवा फ़ारसी अरबी के कठिन शब्दों की बनाई हुई भाषा के बदले दिल्ली के रहनेवालों की साधारण बोलचाल पर ज्यादा दृष्टि रखी गईं।
- पुस्तक में संस्कृत, फ़ारसी, अंग्रेजी की कविता का तर्जुबा अपनी भाषा के छंदों में हुआ है परन्तु छंदों के नियम और दूसरे देशों का चाल-चलन जुदा होने की कठिनाई से पूरा तर्जुबा करने के बदले कहीं-कहीं भावार्थ ले लिया गया है।
- इस पुस्तक को रचने में मुझको महाभारतादि संस्कृत, गुलिस्ताँ वगैरह फारसी, स्पेक्टेटर, लार्ड बेकन, गोल्ड स्मिथ, विलियम कपूर आदि के पुराने लेखों और स्त्रीबोध आदि के वर्तमान रिसालों से बड़ी सहायता मिली है। – लाला श्रीनिवास, दिल्ली 25-11-1884
परीक्षा गुरु : प्रकरण-परिचय (शीर्षक तथा नीति)
- उपन्यास में कुल 41 प्रकरण हैं
प्रकरण-01 सौदागर की दुकान
- चतुर मनुष्य को जितने खर्चे में अच्छी प्रतिष्ठा अथवा धन मिल सकता है। मूर्ख उससे अधिक खर्चने पर भी कुछ नहीं मिलता। – लार्ड चेटरफील्ड
प्रकरण 02 अकाल में अधिक मास
- अप्राप्ति के दीनन में खर्च होत अविचार।
- घर आवत है पाहुनो वणिज न लाभ लगार। – वृन्द
प्रकरण 03 संगति का फल
- सहबासी होत नृप गुण कुल रीति बिहाय
- नृप युवती अरु तरुलता मिलत प्रायः संग पाए।। – हितोपदेश
प्रकरण -04 मित्रमिलाप
- दूरहिसो कर बढ़ाय, नयनते जल बहाय।
- आदरसों ढिंग बूलाय, अर्धासन देतसो।।
प्रकरण -05 विषयासक्त
- इच्छा फलके लाभसों कबहुं न पूरिह आश।
- जैसे पावक घृत मिले बहु विधि करत प्रकाश।। – हरिवंश
प्रकरण -06 भले-बुरे की पहचान
- धर्म अर्थ शुभ कहत कोठ काम, अर्थ कहिं आन।
- कहत धर्म कोठ अर्थ कोल तीनहुँ मिल शुभ जान।। – मनुस्मृति
प्रकरण -07 सावधानी (होशियारी)
- सब भूतन को तत्व लख कर्म योग पहिचान।
- मनुजन के यत्नहिं लखहिं सो पंडित गुणवान ।। – बिदुर प्रजागरे
प्रकरण -08 सबमें हाँ
- एकै साथै सब सधै सब साधे सब जाहिं।
- जो गहि सीचै मूलकों फूल फलैं अघाहिं ।। – कबीर
प्रकरण -09 सभासद
- धर्मशास्त्र पढ़ वेद पढ़ दुर्जन सुधरे नाहिं
- गो पय मीठी प्रकृति ते, प्रकृति प्रबल सब माहिं। – हितोपदेश
(इस प्रकरण में मदनमोहन के सभासदों – 1. मुंशी चुन्नीलाल, 2. मास्टर शिंभू दयाल 3. पंडित पुरुषोत्तम 4. हकीम अहमद हुसैन और 5. बाबू बैजनाथ का चित्रण हुआ है।)
प्रकरण 10 प्रबंध ( इंतजाम )
- कारजको अनुबंध लख अरु, उत्तरफल चाहि।
- पुन अपनी सामर्थ्य लख करै कि न करे ताहि। – बिदुर प्रजागरे
प्रकरण 11 सज्जनता
- सज्जनता न मिलै किये जतन करो किन कोय।
- ज्यों कर फार निहारिये लोचन बड़ो न होय। – वृन्द
प्रकरण 12 सुख-दुःख
- आत्मा को आधार अरु साक्षी आत्मा जान।
- निज आत्म को भूलहू करिए नहि अपमान। – मनुस्मृति
प्रकरण – 13 बिगाड़ का मूल विवाद
- कोपै बिन अपराध। रीझ बिन कारन जुनर।
- ताके झिल असाध। शरदकाल के मेघ जों। – बिदुर प्रजागरे
प्रकरण 14 पत्र व्यवहार
- अपने अपने लाभ को बोलत बैन बनाय।
- वेस्या बरस घटवहीं, जोगी बरस बढ़ाय। – वृन्द
प्रकरण 15 प्रिय अथवा पिय्
- दमयन्ति विलपतहुती बन में अहि भय पाई।
- अहि बध बधिक अधिक भयो ताहूते दुखदाई। – नलो पाख्याने
प्रकरण 16 सुरा (शराब)
- जेनिंदतकर्मंन डरहिं करहिंकाज शुभजान।
- रक्षै मंत्र प्रमाद तज करहिं न ते मदपान। – बिदुरनीति
प्रकरण 17 स्वतंत्रता और स्वेच्छाचार
- जो कंहु सब प्राणीन सों होय सरलता भाव।
- सब तीरथ अभीषेक ते ताको अधिक प्रभाव। – विदुर प्रजागेर
प्रकरण 18 क्षमा
- नर को भूषण रूप है रूपहु को गुणजान।
- गुणको भूषण जान है क्षमा को मान। – सुभाषित रत्नाकरे
प्रकरण 19 स्वतंत्रता
- स्तुति निंदा कोऊ करहि लक्ष्मी रहहि की जाय।
- मरै कि जियै न धीरजन धरै कूमारग जाय। – प्रसंग रत्नावली
प्रकरण 20 कृतज्ञता
- तृणहु उतारे जनगनत कोटि मुहर उपकार।
- प्राण दियेहु दुष्टजन करत बैर व्यवहार। – भोज प्रबंध
प्रकरण -21 पतिव्रता
- पति के संग जीवन मरण पति हर्षे हर्षाय।
- स्नेहमई कुलनारि की उपमा लखी न जाय। – शारंगधरे
प्रकरण – 22 संशय
- अज्ञपुरुष श्रद्धा रहित संशयत विनशाय।
- बिनाश्रद्धा दुहं लाकमैं तार्को सुख न लखाय। – श्रीमद्भागवतगीता
प्रकरण 23 प्रामाणिकता
- एक प्रामाणिक मनुष्य परमेश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है। – पोप
(इस प्रकरण में उपन्यासकार ने ब्रजकिशोर के चरित्र पर प्रकाश डाला है।)
प्रकरण 24 हाथ में पैदा करनेवाले और पोतड़ों के अमीर
- अमिल द्रव्यहू यत्नते मिले सुअवसर पाय।
- संचितहू रक्षाबिना स्वतः नष्ट हो जाय। – हितोपदेश
(इस प्रकरण में उपन्यासकार ने लाला मदनमोहन के पिता के चरित्र पर प्रकाश डाला है।)
प्रकरण 25 साहसी पुरुष
- सानुबंध कारज कर सब अनुबंध निहार।
- करै न साहस, बुद्धि बल पंडित करे विचार। – विदुर प्रजागरे
(इस प्रकरण में उपन्यासकार ने हरकिशोर के चरित्र पर प्रकाश डाला है।)
प्रकरण 26 दिवाला
- कौन समझ न कीजिए बिना विचार व्यवहार।
- आय रहत जानत नहीं? सिरको पायन भोर। – वृन्द
प्रकरण 27 लोकचर्चा (अपवाह )
- निंदा, चुगली, झूठ अरु पर दुःखदायक बात।
- जो न करहिं तिन पर द्रवहिं सर्वेश्वार बहुभौत। – विष्णुपुराण
प्रकरण – 28 फूट का मुंह काला
- फूट गए हीरा की बिकानी कनी हाट।
- हाट आपस के फूटे कहु कौन को भलो भयो। – गंग
प्रकरण – 29 बातचीत
- सीख्यो धन धाम सब कामकेक सुधारिवेको।
- ..एक बोलवो न सीख्यो गया धूरमैं। – शृंगार संग्रह
प्रकरण 30 नैराश्य ( नाउम्मीदी)
- फलहीन महीरूह को खगवृन्द तजे बन को मृग भस्म भए।
- …. बिन स्वारथ कौन सखा जग मैं? सब कारज के हित मौत भए। – भर्तृहरि
प्रकरण -31 चालाक की चूक
- सुख दिखाए दुःख दीजिए खलसों लरियेकाहि
- जो गुर दीयेही मरै क्यों विष दीजै तहिः। – वृन्द
प्रकरण 32 अदालत
- काम परेही जानिये जो न जैसो होय।
- बिन ताये खोटो खरो गहनों लखै न कोय। – वृंद
प्रकरण – 33 मित्र परीक्षा
- धन न भयेहू मित्र की सज्जन करत सहाय।
- मित्र भाव जाचे बिना कैसे जान्यो जाय। – विदुर प्रजागरे
प्रकरण – 34 हीनप्रभा (बदरोबी)
- नीचन के मन नीति न आवै, प्रीति प्रयोजन हेतु लखावै।
- रंचक भूल कहूँ लख पावै, भाँति अनेक विरोध बदावै।। – विदुर प्रजागरे
प्रकरण -35 स्तुति निंदा का भेद
- बिनसत बार न लागही ओछे जनकी प्रीति।
- अंबर डंबर सांझके अरू बारू की भींति। – सभाविलास
प्रकरण -36 धोके की टट्टी
- बिपत बराबर सुख नहीं जो धोरे दिन होय।
- इष्ट मित्र बंधु जिते जान पर सब कोय। – लोकशक्ति
प्रकरण 37 विपत्त में धैर्य
- प्रिय बियोग को मूढ़जन गिनत गड़ी हिय भालि।
- ताहीं को निकरी गिनत धीरपुरुष गुणशालि। – रघुवंश
प्रकरण -38 सच्ची प्रीत
- धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
- आपत्तिकाल परखिये चोरी। – तुलसी
प्रकरण 39 प्रेतभय
- पियत रुधिर बेताल बाल निशिचरन साथि पुनि।
- बीर जनन की वीरता बहु विध बरणैं मंद गति।। – रसिकजीव
प्रकरण 40 सुधारने की रीति
- कठिन कलाहू आय है करत-करत अभ्यास।
- नट ज्यों चालतु बरत पर साधे बरस छमास। – वृन्द
प्रकरण – 41 सुख की परमवधि
- जबलग मन के बीच कुछ स्वारथ को रस होय।
- सुद्ध सुधा कैसे पियै? परै बोजी में तोय।। – सभाविलास
3 responses to “परीक्षा गुरु – लाला श्रीनिवास दास”
बढ़िया जानकारी। कृपया और भी उपलब्ध कराएं।
iske patron ke bare mein bhi batein plz.
बहुत बढ़िया